एक सोंच – घोर निराशा के बीच हमें आशावादी होना है

बाहर मृत्यु का तांडव और बंद कमरे की घुटन सच में भयावह है, जैसा कभी कुछ इसीतरह की कहानी Hollywood फिल्मों में देखने को मिलता था आज कुछ – कुछ उसी दृश्य को वास्तविक रूप में देख कर आश्चर्य होता है. लाखों यत्न किये जा रहे हैं किन्तु कोई ठोस परिणाम अभी तक नहीं निकला है .

अभी मेरे पास वक़्त है, बहुत वक़्त है और सच कहूं तो वर्षों बाद इतना फुर्सत का पल प्राप्त हुआ है. ऐसा महसूस हो रहा है जैसे पूरी दुनिया बहुत तेजी से भाग रही थी, गतिशील थी, अचानक ठहर गयी है. कभी – कभी इस तन्हाई के पल में मैं अपनी खिड़की के बहार पसरी सन्नाटों को देखता हूँ और यही सोंचता हूँ कि इस खिड़की के बाहर की जिंदगी कितनी बेबस है!

मेरी तरह न जाने कितने लोग हैं जो एकांतवास की चादर ओढ़े इस दौर का ख़त्म होने का इन्तिज़ार कर रहे हैं……

ज़िन्दगी में आई चुनौतियों का सामना करो

मानो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमारे सारे प्रयास विफल हो रहे हैं, जहाँ कोई औषधि काम नहीं कर रहा है, और मौत अंततः विजय होती दिख रही है; शायद इसी को ‘महामारी’ कहते हैं.

कहते हैं जीवन संघर्षमय होता है इस बात का वास्तविक अर्थ इस एकांतवास में अच्छे से समझ पा रहा हूँ. जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए हमें कई बार अनुकूल – प्रतिकूल परिस्तिथियों का सामना करना पड़ता है. कभी धुप तो कभी छांव, कभी सर्दी कभी गर्मी, सुख तो कभी दुख, सफलता – असफलता ये क्रम सतत चलता रहता है – इसी का नाम ज़िन्दगी है.

अब प्रश्न ये उठता है कि संसार में कितने लोग ऐसे हैं जो जीवन पथ में आयी विपरीत परिस्तिथियों का बोझ सहज भाव से उठा पाते हैं और कितने लोग ऐसे हैं जो घोर त्रासदी के वक़्त भी खुद को और दूसरों को संभाल पाते हैं. कहते हैं, जब हम किसी चुनौती से हार जाते हैं तो निराश हो जाते है और यदि यह निराशा लम्बी अवधि के लिए रही तो हमारा दृष्टिकोण निराशावादी का हो जाता है. यह दृष्टिकोण हमें जीवन के सभी संभावनाओं से मूंह मोड़ लेने के लिए विवश कर सकता है.

घोर निराशा के बीच आशावादी बनना है

यह समय है विश्व एकता दिखाने का, मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ किन्तु हम लोग कर सकते है!

इस वैश्विक महामारी के बीच हमें हमारी इच्छाशक्ति को मजबूत करना है, घोर निराशा के बीच आशावादी बनना है, एकता का परिचय देना है – इसके लिए चाहे हम थालियाँ बजायें या मोमबतियां जलायें, चाहें हम रामायण – महाभारत देखकर अपने विचारों को उन्नत करें या कुछ और कार्यक्रम देखकर तनाव दूर करें.

नौ मिनट का प्रकाश पर्व का जो दृश्य था ऐसा तो कभी दिवाली पर भी देखने को नहीं मिला था. समवेत रौशनी के साथ समवेत ध्वनि सचमुच एक अलग अनुभव का एहसास करा रहा था – अमीरों के बहुमंजिला इमारतों से गरीबों के झोपड़ियों से एक साथ टोर्च, दीप, मोमबत्तियां, फ़्लैश लाइटें चमक रही थी ; अनेकों वाद्ययंत्र जैसे शंख, घंट आदि बजाये जा रहे थे जो हमें जागृत समाज का परिचय करा रहे थे.

मुझे इस बात पर कभी आश्चर्य नहीं हुआ कि कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति भी की है क्योंकि यह एक ऐसा देश है जहाँ ऐसा होना स्वाभाविक है – सहमती के बीच असहमति. भारत की ही तरह अनेक देशों में भी लोगों के हौसले बनाये रखने के लिए कई प्रयोग किये गये और किये जा रहे हैं. हम सब को अवसाद से बचने के लिए इसके सिवा और कोई रास्ता है क्या?

खिड़की की बहार की दुनिया

खबर लगातार आ रही है कि मरनेवालों की संख्या लगातार बढती जा रही है, इतने लोग इस महामारी से ग्रषित हैं जो निराश करती है किन्तु इन्ही ख़बरों के बीच में एक अच्छी खबर भी होती है जिसे हमें ध्यान देना है – संक्रमण से इतने लोग ठीक हुए.

ऐसा नहीं है कि इस पृथ्वी पर महामारी पहली बार आई है, पहले भी आई थी, और आगे भी आती रहेगी तो क्या हम जीना छोड़ दें? यह अटल सत्य है कि कठिन परिस्तिथि में ही इंसान और इंसानियत की वास्तविक परिचय होती है. “धन्य हैं वे लोग जो इस मातमी सन्नाटे के बीच, बाहरी दुनिया में जो खतरों से भरी हुई है, अपनी प्रवाह किये बगैर हमारी सेवा में रत हैं.”

हम अपने – अपने घरों में दुबके हैं, कभी – कभी खिड़की के बाहर पसरी सन्नाटों के बीच नज़र दौड़ाकर बहार की दुनिया की खबर लेना चाहते हैं किन्तु हम सब – कुछ नहीं समझ पाते हैं, हाँ कभी – कभी दो – चार आवारा कुत्तों को देखकर मन बहला लिया करते हैं. संच पूछिए तो खिड़की की बहार की दुनिया में बेशुमार दर्द है; उन गरीबों की कराह है जो मीलों पैदल चलकर अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहते हैं जो थक चुके हैं, भूख से बेहाल हैं, जिनके पावों में छाले पड़ गये हैं.

एक तीन साल के बच्चे की हालत बेहद ख़राब थी जिसे हॉस्पिटल के लिए रेफ़र किया गया था; बच्चे की असहाय ममतामयी माँ अथाह वेदना के साथ उस बच्चे को गोद में लिए दौड़े जा रही थी; मदद के लिए पुकार रही थी पर कोई सुनने वाला नहीं था, अफ़सोस! जिस माँ ने जन्म दिया था वही लाचार माँ उस बेजान देह को ह्रदय से लगाये बिलख रही थी – यह घटना है बिहार के जहानाबाद की.

गरीबो के ऊपर दोहरा मार पड़ी है साहब एक कोरोना का और दूसरा भूख और लाचारी का.

यह दौर हमें इंसानों के तीन रूपों से परिचय करवा दिया है – एक जो जख्मों में मरहम लगाने का काम कर रहे हैं, दूसरा वो जो इस संकट के समय में साथ देना तो दूर बल्कि निर्दयता का उदाहरण पेश कर रहे है और तीसरा जो बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन चुपचाप पड़े हैं.

कोरोना से एक न एक दिन तो हम जीत ही जायेंगे लेकिन वो लोग जो चिकित्षा कर्मियों, सफाईकर्मियों, प्रसाशन जो हमारी ही सेवा में रत हैं उनपर हमला कर रहे हैं, वो कौन सी बीमारी से ग्रषित हैं? यह एक सोंचनिय विषय है.

उच्च अवस्था पर पहुंचा विज्ञान भी आज सोंचने को मजबूर है कि“कैसे एक वायरस ने दुनिया बदल दी”

हम अभी अपने – अपने घरों में दुबके हकीकत दुनिया से दूर हैं और अभी घरों में ही रहें तो वही अच्छा है, बस तकनीक का सहारा है जो हमें बाहरी दुनिया से जोड़े हुए है……

Lal Anant Nath Shahdeo

मैं इस हिंदी ब्लॉग का संस्थापक हूँ जहाँ मैं नियमित रूप से अपने पाठकों के लिए उपयोगी जानकारी प्रस्तुत करता हूँ. मैं अपनी शिक्षा की बात करूँ तो मैंने Accounts Hons. (B.Com) किया हुआ है और मैं पेशे से एक Accountant भी रहा हूँ.

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