Saccha Dharma (सच्चा धर्मं) एक लघु कथा : निस्वार्थ सेवा ही धर्मं है

प्रिय पाठकों, आप सभी के लिए मैं आज एक विशेष लेख लेकर आया हूँ जो ‘धर्म’ से सम्बंधित है. वास्तव में यह एक लघु कथा है जिसे मैंने अपने school के दिनों में सुना था और नोट किया था. अचानक एक दिन मैंने अपनी पुरानी कॉपी के पन्ने पलट रहा था तभी यह कथा मुझे मिली तो मैंने भी सोंचा क्यों न इसे मैं आपलोगों के साथ share करूँ.

हम सभी के जीवन में कभी न कभी ये प्रश्न जरुर आता है कि आखिर धर्मं क्या है? वास्तविक धर्मं क्या है? धर्मं की परिभाषा क्या है आदि. धर्म एक ऐसी चीज है जिसकी कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती है. इसकी परिभाषा काल और स्थान के साथ बदलती रहती है. फिर भी मौलिक रूप से हम कह सकते हैं की धर्मं जीवनशैली है.

धर्मं क्या है?

धर्मं ऋषियों द्वारा दिखाया गया वह मार्ग है जो हमें सात्विक जीवन जीने के लिए रास्ता दिखाती है. महाभारत को धर्मं युद्ध कहा जाता है क्योंकि वह युद्ध सत्य और न्याय के लिए लड़ा गया था इसका अर्थ ये बिल्कुल नहीं है कि धर्मयुद्ध किसी विशेष सम्प्रदाय से लड़ी जाये.

मेरा व्यक्तिगत मत है कि यदि आप सत्य के मार्ग पर नहीं चल सकते हैं तो आप धार्मिक नहीं हो सकते चाहे आप कुछ भी कर लीजिये जैसे संध्या वंदन, अनेक तरह का व्रत, धामों की यात्रा आदि.

मेरी कथा का जो विषय है वह सेवा से सम्बंधित है. स्वामी विवेकानंद के अनुसार“मैं उसी को महात्मा कहता हूँ जिसका ह्रदय गरीबों के लिए रोता है;अन्यथा वह तो दुरात्मा है.” गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है“परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई” अर्थात परोपकार से बड़ा कोई धर्मं नहीं और दूसरों को दुःख पहुँचाने से बड़ा कोई अधर्म नहीं.

कथा की शुरुआत करने से पहले मैं एक बात और कहना चाहता हूँ श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने सेवा की महत्ता को समझाते हुए कई बार कहा है – “शिव समझकर जीव सेवा.” इसी भाव से प्रेरित होकर मैंने यह लघु कथा आप लोगों तक पहुंचा रहा हूँ.

‘शिव समझकर जीव सेवा’ इस वाक्य के पीछे यही भाव है कि अधिकतर लोग जब किसी के लिए कुछ करते हैं या दान देते हैं तो उनके मन में अहम् भाव आ जाता है जैसे – मैंने उसकी मदद की, मैंने उसको इतना दान दिया आदि वास्तव में यह अहम् भाव धर्मं में प्रतिष्ठित होने के लिए  बाधक है किन्तु जब हम ये समझकर किसी की सेवा करेंगे कि वह व्यक्ति ईश्वर का अंश है, उसके अन्दर भी वही अनंत ईश्वर विधमान है जो समस्त सृष्टि का पालक है तो हमारा अहम् भाव समाप्त हो जाएगा.

हमे निस्वार्थ सेवा करना चाहिए, बिना किसी लाभ के, बिना किसी कामना के. चलिए कथा आरम्भ करते हैं –

Saccha Dharma kya hai? सच्चा धर्मं क्या है?

एक बार एक व्यक्ति धर्म की खोज में यत्र – तत्र भटक रहा था. वह बड़े – बड़े ज्ञानियों, पंडितों, तपस्वियों के आश्रमों में जाता और प्रश्न करता “गुरुदेव धर्मं क्या है? कृपया इस विषय पर मेरी अज्ञानता दूर करें.” वह उनके पांडित्यपूर्ण वाणी को ध्यानपूर्वक श्रवण करता किन्तु उसे संतुष्टि नहीं मिलती जिसकी खोज में वह निकला था.

वह इसी विषय पर चिंतन करता हुआ चला जा रहा था. पंडितों की बड़ी – बड़ी बातों और संस्कृत के श्लोकों से भी उसे संतुष्टि नहीं मिल पा रही थी. वह आगे बढ़ता ही जा रहा था की एकाएक उसे के कुटिया दिखी. वह कुटिया के समीप आया तो देखा – एक वट वृक्ष के निचे, कुश की आसन में एकाग्रचित हो ध्यानमग्न एक तपस्वी बैठे थे.

वह तपस्वी के निकट गया और उनका ध्यानभंग करते हुए कहा – ” मुझे क्षमा करें गुरुदेव.” 

तपस्वी ने वात्सल्य दृष्टि से नए आगंतुक की ओर देखा और कहा – “वत्स! मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ?”

नए आगंतुक ने हाथ जोड़कर कहा ” गुरुदेव धर्म क्या है? कृपया इस विषय पर मेरी अज्ञानता दूर करें.”

तपस्वी ने उत्तर दिया – ” तुम मेरे आश्रम में ही निवास करो और जब तुम्हे सही उत्तर मिल जाए तो चले जाना.”

वह कई दिनों तक तपस्वी के साथ उनके कुटिया में निवास करता रहा. एक दिन सायंकाल में आगंतुक कुटिया में गुरुदेव को न पाकर उन्हें खोजते हुए निकला. अचानक देखा कि गुरुदेव एक क्षत – विक्षत हुए एक व्यक्ति के घावों में लेप लगा रहे थे. घायल व्यक्ति लघु काल के अंतराल में कराह रहा था.

वह व्यक्ति गुरुदेव के समीप आया अपर प्रणाम कर कहा – “गुरुदेव, संध्याकाल का समय पार हो रहा है अर्थात आपके ठाकुरपूजन का समय समाप्त होता जा रहा है और आप यहाँ हैं.”

गुरुदेव ने शिष्य की ओर बिना देखे ही कहा “वत्स! मुझे ठाकुरपूजन से क्या प्रयोजन? मैं तो साक्षात् शिव की पूजा कर रहा हूँ.”

शिष्य ने विस्मयपूर्वक प्रश्न किया – “आप और शिव की पूजा, मैं कुछ समझा नहीं गुरुदेव?”

Saccha Dharma kya hai?

गुरुदेव ने विस्तारपूर्वक समझाया – “वत्स! मेरा धर्म जीवों की निस्वार्थ सेवा करना ही है और मैं किसी की भी सेवा शिव समझकर ही करता हूँ क्योंकि इससे अहम् भाव समाप्त हो जाता है. अहंकार धर्मं की मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है.”

गुरुदेव ने फिर एक लम्बी सांस लेते हुए कहा – ” मैं जिस व्यक्ति की सेवा कर रहा हूँ उसके अन्दर साक्षात् ईश्वर को महसूस कर पा रहा हूँ, मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मैं भगवान् शिव की चरण कमलों में ही वंदना कर रहा हूँ. निस्वार्थ सेवा से बढ़कर दूजा अन्य कोई धर्म नहीं.”

शिष्य ध्यानपूर्वक गुरु की बातें सुन रहा था और एकाएक उनके चरणों में गिरकर कहा – ” गुरुदेव, आपने मेरी आँखें खोल दी. आज मुझे सच्चे अर्थों में समझ में आ गया कि वास्तविक धर्म क्या है. अब मेरा सफ़र यही पर समाप्त हुआ.”

अंतिम बात

आपको ये लघु कथा Saccha Dharma kya hai? कैसी लगी मुझे comment करके जरुर सूचित करें. व्याकरण सम्बन्धी यदि किसी प्रकार की त्रुटि हुई हो तो मुझे क्षमा करें. मेरा उद्देश्य केवल आपतक लघु कथा के रूप में “निस्वार्थ सेवा का भाव” पहुँचाना है. यदि आप किसी प्रकार का, इस लेख से सम्बंधित मेरा मार्गदर्शन करना चाहते हैं तो आपका स्वागत है.

Lal Anant Nath Shahdeo

मैं इस हिंदी ब्लॉग का संस्थापक हूँ जहाँ मैं नियमित रूप से अपने पाठकों के लिए उपयोगी जानकारी प्रस्तुत करता हूँ. मैं अपनी शिक्षा की बात करूँ तो मैंने Accounts Hons. (B.Com) किया हुआ है और मैं पेशे से एक Accountant भी रहा हूँ.

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