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Swami Vivekananda Spiritual Awakening in Hindi

अक्सर हम लोग धर्म के बारे में जो कुछ बचपन से सुनते हैं, उस पर बिना सोचे-समझे विश्वास कर लेते हैं। लेकिन स्वामी विवेकानंद, जिनका असली नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, बचपन से ही बहुत तेज और जिज्ञासु थे। जब वे कॉलेज में पढ़ते थे, उनका दिमाग तर्क करने वाला था और वे सच्चाई जानना चाहते थे। वे कभी भी सिर्फ पुराने धार्मिक विश्वासों से संतुष्ट नहीं होते थे। जो चीजें समाज सही मानता था, वे उनका कारण पूछते थे और हर बात पर सवाल उठाते थे।

जैसे-जैसे नरेंद्रनाथ की सोच बढ़ती गई और वे पश्चिमी विचारों और विज्ञान के बारे में जानने लगे, उन्होंने अपने पुराने ईश्वर-विश्वास और परंपरागत धारणाओं पर सवाल उठाने शुरू कर दिए।

नरेंद्र के मन में हमेशा कई सवाल आते थे, जैसे – “क्या सच में भगवान हैं? अगर हैं, तो क्या किसी ने उन्हें देखा है?” वे अकसर लोगों से पूछते थे, “क्या आपने भगवान को देखा है?” लेकिन किसी के पास ऐसा जवाब नहीं था, जो उन्हें संतुष्ट कर सके। वे भीतर से बहुत उलझन महसूस करते थे। उनके मन में भगवान को पाने की चाह थी, लेकिन साथ ही वे सब कुछ तर्क की कसौटी पर भी परखते थे।

तो आइए, नरेंद्रनाथ की आध्यात्मिक जागृति की यात्रा को विस्तारपूर्वक और गहराई से समझने का प्रयास करें।

Swami Vivekananda Spiritual Awakening

स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिक जागृति

नरेंद्रनाथ अब अपने युवावस्था के अपने ईश्वर विश्वास और और पारंपरिक विश्वासों पर प्रश्न उठाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे उसके संदेह और प्रश्न एक बौद्धिक तूफान के रूप में इतने ज़ोरों से उठा कि  उनको बेचैन कर दिया। वे तर्कयुक्त आस्था और भक्ति चाहते थे. वे साधारण धार्मिक विश्वास से संतुष्ट नहीं थे; वे हर उस बात पर प्रश्न उठाते थे जिसे समाज ने सत्य मान लिया था। उनके जीवन में यह एक ऐसा दौर था जब वे गहरे अतृप्तिपूर्ण द्वंद्व से गुजर रहे थे। उनके भीतर भक्ति की तीव्र चाह और तर्कशीलता का संघर्ष बना रहता था।

नरेंद्रनाथ का जन्म किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही हुआ था. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उनका जन्म एक दिव्य योजना का हिस्सा था, जिसे ईश्वर ने मानवता के कल्याण हेतु विशेष उद्देश्य के साथ चुना था। वे इस संसार में किसी महान मिशन को पूरा करने के लिए आए थे। 

उनका जन्म केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि एक दिव्य संदेश था  कि हर मनुष्य में अनंत संभावनाएं हैं, आवश्यकता है तो केवल उन्हें पहचानने और जागृत करने की।

नरेंद्रनाथ के जीवन में यह पहलू भी उल्लेखनीय है कि जैसे अधिकांश पिता अपने पुत्र के उज्ज्वल भविष्य और पारिवारिक जीवन की कामना करते हैं, वैसे ही उनके पिता भी चाहते थे कि नरेंद्र विवाह करें। उन्होंने न केवल विवाह का प्रस्ताव रखा, बल्कि इसके साथ एक सफल करियर की संभावनाओं का आकर्षक चित्र भी प्रस्तुत किया।

लेकिन नरेंद्रनाथ इस विचार से सहज नहीं थे। उनके भीतर एक ऐसा अंतर्ज्ञान था जो उन्हें सांसारिक बंधनों की ओर बढ़ने से रोकता था। उन्होंने स्पष्ट रूप से विवाह के विचार का विरोध किया।

विशेष बात यह थी कि जब भी विवाह का विषय उठता, कोई न कोई अप्रत्याशित बाधा सामने आ जाती जैसे मानो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें इस मार्ग पर जाने से रोक रही हो। यह घटनाएं महज़ संयोग नहीं लगतीं, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे उनका जीवन पहले से ही किसी विशेष आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए निर्धारित हो चुका था।

नरेंद्रनाथ के भीतर का यह वैराग्य और संन्यासी वृत्ति धीरे-धीरे उन्हें उस मार्ग की ओर ले जा रही थी, जहाँ से आगे चलकर वे स्वामी विवेकानंद के रूप में न केवल भारत, बल्कि समूचे विश्व को दिशा देने वाले थे।

ब्रह्म समाज और केशव चंद्र सेन का प्रभाव

नरेंद्रनाथ पश्चिम के दार्शनिकों जैसे जॉन स्टुअर्ट मिल, डेविड ह्यूम और हर्बर्ट स्पेंसर की किताबें पढ़ीं तो उनके मन में एक बौद्धिक तूफान उठ खड़ा हुआ। इन विचारों और लगातार उठते प्रश्नों ने अंततः उन्हें एक ठोस दार्शनिक संशयवाद (philosophical scepticism) की ओर ढकेल दिया।

हालाँकि उनके मन में तर्क और शक पैदा हो चुका था, लेकिन फिर भी उनके भीतर की धार्मिक भावना जो जन्मजात थी उन्हें सत्य की अनुभूति के लिए व्याकुल किये रहती थी.  वे आज भी ईश्वर को महसूस करना चाहते थे, किसी "अज्ञात शक्ति" को समझना चाहते थे। उनका मन बेचैन रहता था  उन्हें ईश्वर की सच्ची अनुभूति की भूख थी।

इसी समय, बंगाल के पढ़े-लिखे युवाओं पर केशव चंद्र सेन नामक एक धार्मिक और सामाजिक नेता का बहुत प्रभाव था। वे ब्रह्म समाज से जुड़े थे, जो एक ऐसा आंदोलन था जो पुराने रूढ़िवादी धार्मिक विचारों को छोड़कर, एक सच्चे, एकेश्वरवादी और नैतिक धर्म की बात करता था।

नरेंद्रनाथ भी केशव चंद्र सेन के भाषणों और लेखों से प्रभावित हुए। उन्हें लगा कि यह विचारधारा उनकी सोच के साथ मेल खाती है, क्योंकि इसमें तर्क भी था और आस्था भी। इसलिए उन्होंने ब्रह्म समाज में दिलचस्पी लेना शुरू किया, और कुछ समय बाद वे ब्रह्म समाज के सदस्य भी बन गए

नरेन्द्रनाथ भी ब्रह्म समाज के नेताओं की तरह सोचते थे। वह जाति प्रथा को बहुत बड़ा बोझ मानते थे और उसकी सख्ती से परेशान रहते थे। उन्हें भगवान के बहुत सारे रूपों या मूर्ति-पूजा में कोई दिलचस्पी नहीं थी। नारेंद्रनाथ को यह भी लगता था कि हमारे देश की महिलाएँ शिक्षित होनी चाहिए, ताकि समाज आगे बढ़ सके। इस प्रकार, उन्होंने पूरे मन से ब्रह्म समाज के उद्देश्य को अपनाया।

नरेंद्रनाथ की युवावस्था में त्याग और पवित्रता की ओर यात्रा

आप सभी पाठकों को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि नरेंद्र हर उस चीज़ को छोड़ने के लिए तैयार रहते थे, जो उनके बड़े और खुले विचारों के रास्ते में रुकावट बनती थी। वे केवल चुपचाप किसी बात को मान लेना पसंद नहीं करते थे, बल्कि हर बात के “क्यों” और “कैसे” को जानना चाहते थे।

नरेंद्रनाथ जिस समय युवा थे, और जैसा कि अक्सर होता है, युवावस्था में इंसान पर गलत असर पड़ने की संभावना ज़्यादा होती है। ऐसे समय में भटकने के मौके भी बहुत होते हैं। लेकिन नरेंद्रनाथ की सबसे बड़ी खासियत उनकी पवित्रता थी। उन्होंने हमेशा पवित्रता को जीवन का सबसे जरूरी गुण माना और उसे पूरी तरह अपने जीवन में अपनाया।

जब वे वेदांत के विचारों से परिचित हुए, तब उन्हें यह गहराई से समझ में आया कि बिना ब्रह्मचर्य, यानी बिना पवित्रता के, सच्चा आध्यात्मिक जीवन जीना मुमकिन नहीं है। उन्होंने यीशु मसीह के उस वचन को दिल से महसूस किया - “धन्य हैं वे, जो हृदय से पवित्र हैं, क्योंकि वे ईश्वर को देखेंगे।”

नरेंद्रनाथ के मन में बहुत छोटी उम्र से ही ब्रह्मचर्य का भाव आ गया था। उन्होंने हर महिला को "माँ" के रूप में देखना शुरू कर दिया था, जैसा कि एक सच्चा संन्यासी देखता है। उनके अंदर ईश्वर को पाने की भावना बहुत गहरी और मजबूत हो चुकी थी।

नरेंद्रनाथ के मन में परस्पर दो विरोधी विचारधाराएं रात को सोते समय आने लगीं एक भोग-विलास युक्त सांसारिक जीवन और दूसरा संन्यासी का जीवन। एक कामना का रास्ता था, दूसरा त्याग का। लेकिन जैसे-जैसे वे अपने भीतर की गहराई में उतरते गए, वैसे-वैसे सांसारिक जीवन की छवि धुंधली होकर लुप्त हो गई और उनकी अंतरात्मा ने एक महान त्याग का वरण किया, जो कि ईश्वर-दर्शन का एकमात्र मार्ग है।

कुछ समय तक ब्रह्म समाज से जुड़कर नरेंद्र को संतोष मिला और उन्होंने इसके नियमों का पूरी तरह पालन किया। जैसे ब्रह्म समाज के बाकी लोग निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे, वैसे ही नरेंद्र का भी भरोसा था। लेकिन उनका मानना था कि अगर ईश्वर सच में है, तो वह सच्चे दिल से प्रार्थना करने वालों को ज़रूर दिखाई देगा। वे मानते थे कि ईश्वर को जानने का कोई न कोई रास्ता ज़रूर होगा, वरना जीवन का कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन जल्द ही उन्होंने महसूस किया कि ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद भी वे ईश्वर को पाने के रास्ते में ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाए हैं।

और धीरे-धीरे उन्हें यह समझ में आने लगा कि यदि ईश्वर की प्राप्ति ही लक्ष्य है, तो ब्रह्म समाज से जुड़ने के बाद भी वे उस लक्ष्य के उतने ही दूर हैं, जितने पहले थे।

सत्य को जानने की तीव्र इच्छा

क्या किसी ने ईश्वर को देखा है — यह जानने की इच्छा अब नरेंद्रनाथ के मन में बहुत तेज़ हो गई थी। सत्य को जानने की इसी तलाश में वे महार्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर के पास गए। उस समय महार्षि गंगा नदी पर एक नाव में एकांतवास कर रहे थे। नरेंद्रनाथ उनसे मिलने पहुँचे।

वे बहुत उत्साहित थे, इसलिए सीधे सवाल कर बैठे: "महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है?"
महार्षि इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं दे सके। उन्होंने बस इतना कहा: "बेटा, तुम्हारी आंखें योगी की आंखें हैं।"

यह सुनकर नरेंद्रनाथ निराश होकर वहाँ से लौट आए। इसके बाद वे कई और धार्मिक संप्रदायों के नेताओं से मिले, लेकिन कोई भी यह नहीं कह पाया कि उसने ईश्वर को देखा है।

क्या नरेंद्रनाथ को अपने प्रश्न का उत्तर मिल सका?
क्या कोई यह कह पाया कि "हाँ, मैंने ईश्वर को देखा है"?
क्या हुआ जब वे दक्षिणेश्वर पहुँचे और श्रीरामकृष्ण से उनकी भेंट हुई?

जानिए इस रोमांचक आध्यात्मिक यात्रा की अगली कड़ी पढ़िए हमारे अगले अंक में।

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